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सँध्या बेला का एकाकीपन

सँध्या बेला का एकाकीपन


संध्या बेला है जीवन की,

मन जाने क्यों हुआ अधीर।

मन आकुलता से भरा हुआ,

सूनी आंखों में समाई पीर।


कोलाहल सारा जीवन का,

हो गया मौन में परिवर्तित।

सारी व्यस्तताएं प्रतिदिन की,

स्वतः हुईं समाप्ति को उन्मुख।


समय कभी संग न रहता था,

 काट खाता है समय वही।

एकांत की देहरी पर बैठकर,

प्रतीक्षित सांध्य बेला प्रतिदिन।


रिश्ते जो घेरे रहते थे कभी,

अपनी गृहस्थी में व्यस्त हुए।

जो मन को बहुत लुभाते थे,

वे भी जाने क्यूँ विलग हुए।


संध्या लेकर आती थी कभी

नित्य मन में एक नई हुलास।

अब वह आती है परिश्रान्त सी,

रहा न करने को कोई काज।


स्नेहलता पाण्डेय 'स्नेह'

नई 

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4 Comments

Niraj Pandey

06-Jul-2021 12:48 AM

वाह गजब👌

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🤫

05-Jul-2021 09:29 PM

नाइस..!

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Swati chourasia

05-Jul-2021 08:54 PM

Very nice 👌

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